[ नीलम कुलश्रेष्ठ ]
एपीसोड -1
[ प्रभा खेतान जी ने उनत्तीस तीस वर्ष पहले `हंस `में लिखा था - महिलायें अपनी स्थिति का विरोध अपने ज़ख्मों को उघाड़कर करतीं हैं। अहिन्दीभाषी प्रदेश में महिला साहित्यिक मंच पर सर्वेनुमा आलेख ]
चौराहे के एक तरफ़ बने बाग़ के सामने `आवारा टी` के समय सब पेड़ के नीचे दो बेंचों पर आपने सामने बैठी ज़ोर से हंस दीं थीं । एक पुरानी मेज़ पर स्टोव के ऊपर से अल्युमिनियम की केतली उतारता चाय बनाता अधपकी दाढ़ी वाला हरे सफ़ेद रंग की लुंगी पहने वह अधेड़ काला चायवाला अपनी मिचमिची आँखों से चकित हो इन्हें देखने लगा था । ये वो क्षण होतें थे जब स्त्री प्रश्नों पर सिर पटक पटक कर दिल में कसक ली हुई हुई कलम से बड़ौदा के अरविंद आश्रम के लॉन में अपनी रचना पढ़ते समय कईयों के गले भर आते थे । उनके ग्रुप में तब कोई भी नहीं जानता था स्त्री विमर्श किस चिड़िया का नाम होता है? मीटिंग के बाद आश्रम के गेट से निकल कर सड़क पार कर इस `आवारा टी `का मज़ा लिया जाता था,मज़े की बात ये है कि इनमें से कोई आवारा नहीं थी लेकिन इरा ने ऐसी जगह चाय पीने का ये नाम रख दिया है था । पर्यटन स्थल की बात और है पर अपने शहर में अपने मियाओं के साथ किसी पेड़ के नीचे बिछे बेंचों पर ऐसी चाय नहीं पी जा सकती है।
इस समय चाय पीने सिर्फ़ सात आठ ही महिलायें बच रहतीं थीं क्योंकि इतवार की कुछ की अपनी अपनी व्यस्ततायें होतीं थीं। बाकी चाय की चुस्कियों के साथ बेफ़िक्र बातों का मज़ा लेतीं हैं।इस आश्रम में मीटिंग करने की अनुमति रिटायर्ड डेंटल प्रोफ़ेसर सारा देसाई के कारण मिली थी . उनत्तीस तीस वर्ष पहले तब सबकी उम्र कम थी .आराम से लॉन में पैर फैलाकर अपनी रचनायें पढ़ीं जातीं थी। बिना ये सोचे कि शहर में होने वाले कवि सम्मेलनों में इसकी सदस्यों का बायकाट किया जा रहा है। बाहर से ऐसी कवयित्रियाँ किराया देकर बुलाई जातीं थीं जो लचककर सस्वर गा सकें ,`` मेरा ये गीत गुरूजी को बहुत पसंद है ,मैं अपना ये गीत अपने गुरु [ घंटाल ]को समर्पित करते हुए आपके सामने प्रस्तुत कर रही हूँ ---`-मैं गजरा लगाए ,आस भरी दरवाज़े पर खड़ीं हूँ ,इंतज़ार में तुम्हारे . ``
मंच पर मसनद से टिके बैठे गुरु जी ऐसे सिर हिलाते जैसे गजरे की ख़ुशबू बिखेरते हुए ये नायिका उन्हीं का इंतज़ार कर रही है।
इस सम्मेलन में इरा भुनभुना उठी थी ,``जैसे हमारे पास और कोई काम नहीं है जो सज धजकर इंतज़ार करते रहें। ``
तब सबको गुमान भी नहीं था कि ये साहित्यिक संस्था उन उदण्ड स्त्रियों का संगठन बनती जा रही है जो सज धजकर मंच पर छटा बिखरने के स्थान पर उन ज़रूरी प्रश्नों से टकरा रहीं हैं जो उनके स्त्री होने को आहत करते हैं. हाँ ,ये बात अलग थी सब आज के ज़माने के हिसाब से` वैल ड्रेस्ड `व स्टायलिश थीं .
एक महिला के सुझाव पर सन १९९० अपने ही बनाये नए नए संगठन में वह अलबत्ता अलमस्त जाती थी जैसे किसी साहित्यिक किटी पार्टी में जा रही हो। वह समझती थी कि इस शहर की मुठ्ठी भर लिखने वालियों का ये संस्था साहित्यिक मस्ती का एक बहाना है. जब सबकी गम्भीर रचनाएं सुनती गई तो ये ग़लतफ़हमी दूर होती गई।
कुछ बरस पहले केरल का सबरीमाला मंदिर चर्चा में नहीं आया होता ,उसने ये न पढ़ा होता कि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बावजूद आदमियों की भीड़ उग्र बनी औरतों को परम्परा के नाम पर मंदिर में घुसने नहीं दे रही। वह सिलसिलेवार सोच भी नहीं पाती कि स्त्रियों को खदेड़ना क्या होता है --कैसे छीना था वह आश्रम में रचनाकारों का मीटिंग करना। क्या लेते थे वो सब आश्रम का उसके लॉन में मीटिंग करने के अलावा ?--या अहमदाबाद में में गांधीजी के बनवाये साहित्यिक भवन में भी ?फिर भी तिकड़म से निकाल दिए गए या कहें भगा दिए गए।
अररर --वह ख़ास बात तो रह ही गई।तीस इकत्तीस वर्ष पहले इरा के पास दो नई कविता लिखने वाली महिलायें रूचि व सुनयना प्रस्ताव लेकर आईं थीं कि शहर में एक लेखिका संघ बनाया जाए .वह झंझट में नहीं पड़ना चाहती थी ,``आप लोग स्थापित कर लीजिये ,मुझे क्यों बीच में ले रहे हैं ?``
`` दीदी !हमें कौन जानता है ?आपका तो देश में नाम हो गया है इसलिए आपका तो इससे जुड़ना ज़रूरी है। ``
तब सुनयना के घर सिर्फ़ छः लिखने वाली जुटीं थीं और इस तरह हो गई थी स्थापित` लेखनी `.
उसने उत्साहित होकर तीसरी मीटिंग अपने यहां रख ली थी . सुनयना अपने गॉड फादर निशांत जी को लेकर आईं थीं ,ये बात किसी को पसंद नहीं आई।
कविता पाठ के बाद सुनयना ने मधुर स्वर में कहा था ,``आप तो निशांत जी से परिचित होंगी। मैंने जब इन्हें बताया कि हम लोगों ने लेखनी की स्थापना की है तो ये बोले अकेली महिलायें क्या कर सकतीं हैं ?आप लोग लेखनी को उत्तर भारत संघ की शाखा बना दीजिये। ``
सब चुप सुन रहीं थीं क्योंकि किसी को भी संस्थाओं के अनुभव नहीं थे। वह कुछ कहे इससे पहले निशांत जी बोल उठे ,``आप लोग चाहें तो संघ की सदस्यता ले सकतीं हैं। इसकी पिकनिक में `एक्टिविटीज़` करा सकतीं हैं। ``
इरा मन ही मन भुनभुनाई कि वे सब लेखन के लिए इकठ्ठी हुए हैं या पिकनिक मनाने ?
वे दोनों पूरी तैयारी से आये थे। सुनयना ने अपने पर्स से एक पत्र निकाला व कहा था ,``इरा जी व रूचि इस पर साइन कर दें तो ये एग्रीमेंट हो जाएगा कि लेखनी संघ की शाखा बन गई।``कुछ कुछ पशोपेश में बिना कुछ समझते हुए, मजबूर हो उन्होंने उस पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए।
इरा ने ही मीटिंग में प्रस्ताव रखा था ,``हम दो चार हिंदी भाषी इस अहिन्दीभाषी प्रदेश में संस्था बनाकर क्या कर लेंगी ?क्यों न इसे बहुभाषी साहित्यिक मंच बना दिया जाए ? `` तभी उसके सुझाव पर लेखनी को बहुभाषी बना दिया था।
सूचना प्रसारण विभाग में काम करने वाली सूचना अधिकारी कल्पना बेन के सुझाव पर स्थानीय अखबारों में इश्तहार देने से कुछ प्रोफ़ेसर्स ,कुछ अधिकारी महिलायें आ जुटीं थीं.
इसके बाद की मीटिंग में आरती ने सरस्वती प्रार्थना के बाद अरविंद आश्रम के लॉन की घास पर एक लोकप्रिय पत्रिका के पृष्ठ खोलकर फैला दिए,``आप सब लोग देखिये महेश जी वैसे तो कवि हैं लेकिन हमारी` लेखनी से जल भुन कर क्या लेख लिख दिया है `भगतिन मंडली `.और पता है अंत में लिखा है कि कीर्तन करने के लिए इक्कठ्ठी हुई भगतिनें लड़ झगड़ एक दूसरे का मुँह भी नहीं देख रहीं। ``
कुछ तो चिल्ला पड़ीं थीं ,``महेश जी ने ऐसा लिखा है ?``
``हमारी लेखनी कभी भी नहीं टूटेगी। ``
गुजराती भाषी साइंस की प्रोफ़ेसर सृष्टि ने कहा,`` गुजराती में कहावत है-`चार मिले चोटला, तो भांगे ओटला `यानि की जब चार चोटी वाली मिलतीं हैं तो घर टूट जातें हैं। ``
``वॉट नॉनसेंस। ``
``सब जगह स्त्री को बदनाम करने की साज़िश चलती रहती है। ``
`` ऑल रबिश --हम सब मिलकर कुछ करके दिखाएँगे। ``
उसके बाद मीटिंग में इरा ने बम्ब विस्फ़ोट कर दिया ,``जब हम लोगों ने एक स्वतंत्र स्त्री संस्था बनाई थी तो सुनयना क्यों तुमने निशांत जी को बीच में लिया ? लेखनी को दूसरे संगठन की शाखा बनवा दिया ? जैसे एक स्त्री किसी की गुलाम बन जाये .``
सुनयना कुटिलता से मुस्कराई ,``अब तो आपने एग्रीमेंट पर साइन कर दिए हैं। ``
अब तक सारी सदस्यायें जाग चुकीं थीं ,सब अरविंद आश्रम के लॉन पर बैठी शोर मचाने लगीं,``सुनयना !ये तो तुमने सरासर धोखाधड़ी की है। वह एग्रीमेंट रद्द करवाओ। `` ``
```मैं ये कैसे करवा सकतीं हूँ ?मेरी प्रतिष्ठा का ये प्रश्न है ?``
``इरा ने दृढ़ता से कहा ,``हमें अपनी `लेखनी `को बचाने के लिए कुछ करना पड़ेगा। ``
``तो मैं ये संस्था छोड़ दूंगी। ``
इरा कैसे भूल सकती है तनाव के वे दो महीने जब बाकी सभी सदस्यायों की सहमति से उसने संघ के अध्यक्ष से धुंआधार पत्र व्यवहार करके `लेखनी `को संघ के चंगुल से निकलवाया था। उन बिचारे को तो पता भी नहीं था की किसी संघ के अधिशासी सदस्य अपने चमची को लेखनी का सर्वासर्वे बनाने के लिए ने ऐसा अनुबंध करा लिया है .इस बीच किसी भी मजलिस में सुनयना के पति चूहे की तरह कूदते ,उछलते ,कहते फिरते ``अकेली औरतें क्या कर लेंगी? कुछ महीनों में ही इनकी संस्था डिब्बे में बंद हो जाएगी। ``
सुनयना तो अपनी दाल गलती न देख लेखनी से अलग हो गई थी। रुचि ने रंग दिखाने शुरू कर दिए थे.वह दबी ज़ुबां में उसके कान में मन्त्र फूंकती रहती थी ,``हमारे जयपुर में तो संस्था में सेठानियों को बुलाकर उन्हें अध्यक्ष बनाकर ,माला पहना कर संस्था के लिए दान लेते रहते थे। ``
वह चिढ़ जाती ,``ये साहित्यिक संस्था है या धंधेबाज़ संस्था ?सुनयना व तुमने मुझे इसमें शामिल करके ग़लती कर दी। ``
वह खिसिया जाती ,``तो हम कोई कार्यक्रम कैसे करेंगे ?``
``कोई ना कोई रास्ता निकलेगा ही .`` कैसा एक लक्ष्य उसके पास आ गया था ,उसने जान लड़ा दी थी इस संस्था को स्थापित करने में।ये शहर भी तो संस्कार नगरी था जहां किसी अमेरिकन आंदोलन से प्रभावित हो उसकी एक शाखा अम्ब्रेला एन जी ओ काम कर रही थी. शहर की अलग अलग क्षेत्रों में काम करने वाली एक सौ पच्चीस एन जी ओज़ इसकी सदस्य थीं। उसने मेहनत से इस संस्था का फ़ंड जुटाया जो कि लेखनी के वार्षिक खर्च का आंशिक था व उन्हें एक एक पैसे का हिसाब देना पड़ता था। वह कवयित्री नहीं थी लेकिन उसी ने प्रस्ताव रक्खा था ,``हमारे पास थोड़ा फ़ंड है उससे हम वार्षिक कार्यक्रम कर सकते हैं ,एक कवयित्री सम्मलेन कर सकते हैं। ``
सब हंस पड़ीं थीं ,``इस अहिन्दी प्रदेश में कौन हमारी कविता सुनने आएगा ?``
```एक बार कोशिश तो करनी चाहिए। ``
नीलम कुलश्रेष्ठ
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